राजा दाहिर- रोमा चांदवानी 'आशा'




राजा दाहिर 

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जयंती विशेष - 25 अगस्त 
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सिंध का इतिहास भारत की महान सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण अध्याय है। इसी इतिहास के अमर प्रहरी राजा दाहिर थे, जिनकी जयंती 25 अगस्त को श्रद्धा और गर्व के साथ मनाई जाती रही है। राजा दाहिर केवल सिंध ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता और हिंदू स्वाभिमान के अंतिम रक्षक माने जाते हैं।

राजा दाहिर का जन्म 25 अगस्त 669 ई. में सिंध की धरती पर हुआ। उनके पिता का नाम राजा चच था, जो स्वयं एक तेजस्वी और प्रजापालक शासक रहे। चच राजवंश ने सिंध में स्थिर शासन स्थापित किया और राज्य को वैभव प्रदान किया।
राजा दाहिर की माता रानी सुहंदी थी, जो धार्मिक, धैर्यशील और महान संस्कारों वाली रानी थीं। दाहिर के परिवार में उनके भाई-बहन भी थे। उनके बड़े भाई दाहरसीह और बहन 
राजकुमारी बाई (रानी बाई) ने भी राज्य की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखने में भूमिका निभाई।

राजा दाहिर ने अपने पिता चच के पश्चात् युवावस्था में ही राज्य की बागडोर संभाली। वह धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल और न्यायप्रिय शासक थे। उनके शासन में सिंध कला, साहित्य और व्यापार से समृद्ध हुआ। उनकी प्रशासनिक क्षमता ने उन्हें प्रजाजन के लिए अत्यंत प्रिय बना दिया। उन्होंने न केवल सिंध, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्रों में भी भारतीय संस्कृति की रक्षा का बीड़ा उठाया।

राजा दाहिर का युग भारत के इतिहास का वह काल था जब पश्चिम से अरब आक्रमणकारी बार-बार सीमाओं को लांघ रहे थे। हजरत मुहम्मद के बाद इस्लामी ख़लीफ़त विस्तारवादी नीतियों के अंतर्गत भारत को भी अपने अधीन करना चाहती थी।

अरब सेनापति मुहम्मद बिन क़ासिम के आक्रमण में  विशाल सेना लेकर सिंध की सीमाओं में घुसा। राजा दाहिर ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए निर्णायक युद्ध लड़े। युद्ध के दौरान उनकी वीरता और साहस ने शत्रुओं के मनोबल को कई बार तोड़ा। 

712 ईस्वी में, अरोर के युद्ध में, राजा दाहिर ने अंतिम सांस तक लड़ते हुए मातृभूमि की रक्षा की। युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त करते समय उन्होंने अपने सैनिकों को यह संदेश दिया कि —
"धर्म और मातृभूमि की रक्षा ही सच्चा जीवन है, और इसके लिए प्राणों की आहुति सबसे महान बलिदान है।"
उनकी वीरगति केवल एक राजा का अंत नहीं थी, बल्कि यह भारत के आत्मगौरव और सवंत्रता का अमिट उद्घोष थी। राजा दाहिर का अमरतत्व एक व्यक्ति की गाथा नहीं बल्कि भारत के आताम्स्म्मान का शाश्वत संघर्ष था।  
राजा दाहिर की रानी ‘रानी बाई’ ने भी रणभूमि में शत्रु के हाथों अपमानित होने के बजाय जौहर किया। यह भारत के इतिहास का पहला दर्ज़ जौहर माना जाता है।

राजा दाहिर को इतिहास इस रूप में याद करता है कि वे पश्चिमोत्तर भारत के अंतिम हिंदू शासक थे जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों का डटकर सामना किया। उनका बलिदान केवल सिंध के लिए नहीं, बल्कि पूरे हिंदुस्तान के लिए एक अमर गाथा बन गया।

राजा दाहिर की जयंती केवल एक ऐतिहासिक स्मरण मात्र नहीं है, बल्कि यह हमें यह सिखाती है कि धर्म, संस्कृति और मातृभूमि की रक्षा के लिए त्याग और बलिदान ही सर्वोच्च कर्तव्य है।
25 अगस्त को उनकी जयंती पर हम उन्हें नमन करते हैं और संकल्प लेते हैं कि उनकी वीरता, धर्मनिष्ठा और बलिदान को कभी भुलाया नहीं जाएगा।


राजा दाहिर अमर रहें।
भारतवर्ष उनकी अमर गाथा से सदा प्रेरित होता रहेगा।


लेखिका : रोमा चांदवानी ‘आशा’
असिस्टेंट प्रोफेसर, सिंधी विषय 
( गेस्ट फैकल्टी)

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